Thursday, 15 March 2018

हैफा का युद्ध मोर्चा और जोधपुर सैनिकों का अदम्य साहस


दिल्ली स्थित तीन मूर्ति भवन जो कभी पं. जवाहर लाल नेहरू का सरकारी आवास हुआ करता था जहां उन्होंने 16 वर्ष गुजारे थे।  यही तीन मूर्ति भवन आजादी से पूर्व ब्रिटिश इंडियन आर्मी कमांडर-इन-चीफ का भवन हुआ करता था। इसके बाहर स्थित तीन आदमकद मूर्तियां जों तीन भारतीय रियासतों के बहादूर सैनिकों द्वारा प्रथम विश्व युद्ध में प्रदर्शित किये गए अदम्य साहस के प्रतिक के रूप में स्थापित की गई थी।


तीन मूर्ति भवन स्थित तीन सैनिकों की मूर्तियां तीन रियासते जोधपुर, मैसुर एवं हैदराबाद का प्रतिनिधित्व करती है। जोधपुर, मैसुर एवं हैदराबाद लांसर्स के सैनिक हैफा (इजरायल) के मोर्चे पर ब्रिटिश सेना की तरफ से लड़े थे। इस समय हैफा पर ओटोमन साम्राज्य, जर्मन एवं ऑस्ट्रो-हंगरियन सेना ने कब्जा जमा रखा था। हैफा को मुक्त कराने की जिम्मेदारी भारतीय सैनिकों को सौंपी गई थी जो कि मित्र राष्ट्रों की तरफ से प्रथम विश्व युद्ध में भाग ले रहे थे।

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान 23 सिंतबर 1918 को इजरायल के बंदरगाह नगर हैफा को बचाने में 900 भारतीय सैनिकों ने बलिदान दिया था। अत: प्रत्येक 23 सितम्बर को भारतीय सेना हैफा दिवस के रूप में मनाती है। इसी दिन 15वीं इम्पीरियल सर्विस केवलरी ब्रिगेड ने हैफा को शत्रुओं से मुक्त कराने के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी थी। शत्रुओं के गोला, बारूद और मशीनगन से लगातार चल रही गोलीयां भी सरपट तेजी से दौड़ते घोड़ों पर सवार बहादूर सैनिकों को नहीं रोक सकी। 

कैप्टन बहादूर अमन सिंह जोधा तथा दफादार जोर सिंह को उनकी बहादूरी के लिए इंडियन ऑर्डर ऑफ़ मेरिट से नवाजा गया। कैप्टन अनोप सिंह तथा सैंकड लेफटिनेनट सगत सिंह को मिलट्रि क्रॉस से नवाजा गया। मेजर ठाकूर दलपत सिंह जो कि हैफा नगर की आजादी में अतिमहत्वपूर्ण भूमिका निभाने के कारण हैफा के हीरोके नाम से भी जाने जाते है। भारतीय सैनिकों के इसी योगदान के देखते हुए हैफा की म्यूनसिपलिटी ने हैफा की आजादी के भारतीय द्वारा किए संघर्ष को स्कूल के पाठ्यक्रम में भी शामिल किया है।


बीसवीं शताब्दी के युरोपीय महायुद्ध के समय भी जोधपुर के रिसाले ने जो वीरता दिखलाई थी, उस की ब्रिटिश और भारत गवर्नमेंट ने मुक्त कंठ प्रशंसा की थी। उदाहरण के लिए ई. सन् 1918 की 23 सितंबर की घटना का विवरण पर्याप्त होगा।

                उस समय टर्की के शत्रु पक्ष में मिल जाने से मिस्त्र इजिप्ट के रणस्थल में भीषण युद्ध हो रहा था। इसी से ई. सन् 1918 के मार्च से जोधपुर -रिसाले को पिश्चम के रणक्षेत्र से हटाकर पूर्व के रणक्षेत्र में भेजा गया। जिस समय यह रिसाला हैफा के सामने पहुंचा, उस समय उस नगर को टर्की के युद्ध विशारदों ने पूर्ण रूप से सुरक्षित कर रखा था और वे इस रिसाले को देखते ही वहां के सुरक्षित मोरचों में बैठ भीषण नाद के साथ आग उगलने वाली अपनी तोपों से इस पर गोले बरसाने लगे। वहा पर जोधुपर रिसाले के और हैफा के बीच नदी की प्राकृत बाधा होने से शत्रु की सेना और भी सुरक्षित हो रही थी। यह देख अनुभव और कुशल ब्रिटिश सेनापति  ब्रिगेडियर जनरल एडिए किंग ने सेना को वापस बुलाने के आदेश दिए, परन्तु मारवाड़ के वीरों को शत्रु के सामने पहुच पीछे पैर रखना सहन नहीं था।

 इन्होंने अपने सेनापति की नेतृत्व में चमचमाते हुए भालों से शत्रु पर आक्रमण कर दिया। इन्हें इस प्रकार मृत्यु को आलिंगन करने के लिये आगे बढ़ते देख, शत्रु ने इन्हें नदी के पार रोक रखने के लिये, अपनी गोला-वृष्टि को और भी तीव्रतम कर दिया। परन्तु जोधपुर- रिसाले ने इसकी कुछ भी परवाह न की और कुछ ही देर में नदी, शत्रु की गोल-वृष्टि और उसके सुदूढ़ मोरचों की बाधाओं को पार कर हैफा नगर का अधिकार कर लिया। इस युद्ध में राजपूतों के भालों से अनेक तुर्क-योद्धा मारे गए और करीब 700 जिन्दा पकड़े गए।



इसी प्रकार की वीरता ई. स. 1918 की 14 जुलाई के जार्डन घाटी के युद्ध में भी जोधपुर के रिसाले ने अद्भुत वीरता दिखलाई थी। इन कार्यों का उल्लेख ब्रिटिश सेनापतियों के पत्राचारों में और भारत के उस समय के वायसराय लार्ड चैम्सफोर्ड की 20 नवंबर 1920 को जोधपुर में दिए भाषण में विशद् रूप से मिलता है। वायसराय ने अपने भाषण में कहाँ था कि- 

“By their exploits at Haifa and in the Jorden  Valley recalled the deeds of their ancestors who fought at Tonga, Merta and Patan. The reputation which they have gained is well worthy of the glorious annals of Marwar”
                
अर्थात् ‘‘जोधपुर के वीरों ने हैफा और जार्डन में किए अपने वीरतापूर्ण कार्यों से अपने पूर्वजों के तुंगा, मेड़ता और पाटन में किए युद्धों की याद ताजा कर दी। इस रिसाले के वीरों ने जो प्रशंसा प्राप्त की है, वह मारवाड़ की वीरतापूर्ण प्राचीन गाथाओं के अनुकूल ही है।’’

इस प्रकार के राजस्थानी वीरों की वीरता के कई और भी किस्से है जों यह बताते है की इस वीर प्रसूता भूमि पर जन्म लेने वाले रणबाकुरो के शौर्य से न केवल राजस्थान बल्कि भारत अपितु विश्व भी रोमांचित हो चूका हैं | 





भारत-इजरायल राष्ट्राध्यक्ष की यात्रों के दौरान एक बार फिर भारत-इजरायल की दोस्ती का प्रतिक हैफा का युद्ध संघर्ष सुर्खियों में आ गया हैं | भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की 2017 इजरायल यात्रा के दौरान इजरायल में हैफा युद्ध के नायक दलपत सिंह शेखावत की स्मृति में दोनों राष्ट्राध्यक्ष ने एक स्मृति पट्टिका का अनावरण किया। वहीं जनवरी 2018 इजरायल प्रधानमंत्री बेंजामीन नेतुन्याहू की भारत यात्रा के समय तीन मूर्ति मार्ग का नाम बदलकर तीन मूर्ति हैफा चैक कर दिया गया। 

Monday, 11 December 2017

एक महान वीर योद्धा - जननायक महाराणा प्रताप - Maharana Pratap (Historical Saga)


जननायक प्रताप


वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप जिन्होंने ‘‘स्वतंत्रता’’ जैसे पवित्र एवं उच्च आदर्श की रक्षा के लिए राजसी वैभव, ऐश्वर्य एवं सुख सुविधाओं को छोड़कर जीवन भर पहाड़ो में रह कर संघर्ष किया किया तथा मेवाड़ के ध्येय वाक्य ‘‘जो दृढ़ राखे धर्म को ताही राखे करतार’’ में अपनी अटल एवं अडिग आस्था को बनाए रखा। इसी कारण बहुत से इतिहासकार महाराणा प्रताप को भारत का प्रथम स्वतंत्रता सेनानी जैसी पदवी से भी विभूषित करते है।
महाराणा प्रताप का जंम 9 मई 1540 को कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ था। प्रताप के जंम को लेकर भी विवाद है कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हिंदू धर्म की परंपरा के अनुसार प्रथम पुत्र ननिहाल में होता है। जिस वजह से कुछ लोग प्रताप का जंम-स्थल पाली  बताते है, जैसा कि देवेंद्र सिंह शक्तावत ने अपनी पुस्तक ‘महाराणा प्रताप के प्रमुख सहयोगी’ में बताया है। देवीलाल पालीवाल एवं देवीसिंह मंडावा का मानान है कि राजपरिवार में ऐसी परंपरा नहीं थी जिस वजह से प्रताप का जंम कुंभलगढ़ में ही हुआ था। प्रताप के पिता महाराणा उदयसिंह द्वितीय थे। प्रसीद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार उदयसिंह के 20 रानियां थी जिनसे इनके 25 पुत्र एवं 19 पुत्रियां हुई।

प्रताप अपने सभी भाई-बहनों में बडे़ थे। प्रताप की माता जयवंता बाई थी, जो पाली के सोनगरा अखैराज की पुत्री थी। प्रताप को संभवतः औपचारिक शिक्षा माॅ जयवंता बाई व गुरू राघवेन्द्र से मिली थी। प्रताप का बचपन कुंभलगढ़ और चितौड़ की तलहटी में ही बीता था। अमरकाव्यम् गं्रथ से जानकारी मिलती है कि उदयसिंह ने प्रताप के रहने की व्यवस्था चित्तौड़ दुर्ग के तलहटी में कर रखी थी जहाॅ उनक खाने के लिए पुटक भेज दिया जाता था। प्रताप यह भोजन अपने राजपूूत सहयोगियों के साथ बैठकर करते थे जिससे प्रताप को ऐसे विश्वस्त सहयोगि मिले जिन्होंने जीवनभर उनका साथ दिया। यही वह समय था जब प्रताप मेवाड़ की पहाड़ियों एवं जंगलों से पूरी तरह परिचित हुए और बाद में इसी ज्ञान का सफलतापूर्वक प्रयोग अकबर से हुए संघर्ष में किया। प्रताप ने मेवाड़ के इन्हीं पहाड़ों में घुमकर भीलों से भी आत्मीय संबंध बनाये यहीं वजह है कि संघर्ष काल में प्रताप को भीलों का पूर्ण सहयोग प्रताप हुआ। मेवाड़ की पहाड़ियों से प्रताप को एक नया नाम मिला ‘किका’ जो भीली भाषा का शब्द है जिसका प्रयोग भील लोग प्यार से अपने लड़को के लिए करते है, शायद आपको जान के आश्चर्य होगा कि समकालीन फारसी स्त्रोतों में भी प्रताप का नाम प्रताप न मिल के किका मिलता है जैसे- अबुल फजल की पुस्तक अकबरनामा एवं बदायूंनी की पुस्तक मुन्तखब-उल-तवारिख में।

प्रताप बहादूर होने के साथ-साथ अद्भुत योद्धा भी थे। प्रताप अपने युवराज रहते मेवाड़ की सेनाओं को युद्धभूमि में तीन महत्वपूर्ण जीत दिलाई थी। इसकी जानकारी हमें अमरकाव्य गं्रथ एवं मंुहणौत नैणसी री ख्यात से मिलती है कि प्रताप एवं वागड़ की सेनाओं के मध्य सोम नदी के किनारे एक घमासान युद्ध लड़ा गया था जिसमें वागड़ के चैहान पराजित हुए। प्रताप की द्वितीय विजय सलूम्बर के राठोड़ों पर थी जिन्हें पराजित कर प्रताप ने छप्पन के प्रदेश पर अधिकार किया था। इस युद्ध में किशनदास द्वारा वीरता का अद्भुत प्रदर्शन करने के कारण उन्हें सलूम्बर की जागीर दि गई तब से सलूंबर के सामन्त किशनावत कहलाए। प्रताप की तीसरी महत्वपूर्ण विजय गोड़वाड़ प्रदेश की पुनर्विजय थी, गोडवाड़ जिस पर जोधपुर के राठौड़ शासक मालदेव ने अधिकार कर लिया था प्रताप ने उसे फिर से जीत मेवाड़ में शामिल कर लिया। निकट भविष्य में प्रताप ने इन्हीं क्षेत्रों का प्रयोग अपनी युद्ध रणनीति में किया। 


इसी दौरान अखिल भारत के विजय के सपने को लेकर निकले शक्तिशाली मुगल सम्राट अकबर ने 1567 ई. में चितौड़ पर एक भयंकर आक्रमण किया। इस समय अपने अनुभवी सरदारों की सलाह को मानकर उदयसिंह अपने परिवार के साथ ईडर चले गये। चितौड़ पतन के बाद उदयसिंह ने अपना अस्थायी ठिकाना गोगंुदा व कुंभलगढ़ को बनाया। चितौड़ हारने के कुछ ही समय बाद होली के दिन 28 फरवरी 1572 को महाराणा उदयसिंह का देहांत हो गया। उदयसिंह के बाद प्रताप सबसे बड़ा पुत्र होने के कारण मेवाड़ के उत्तराधिकारी थे किंतु उदयसिंह ने जैसलमेर के शासक लूणकरण की पुत्री भटियाणी रानी धीरकंवर के प्रभाव में आकर प्रताप के स्थान पर जगमाल को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर देते है।

Tuesday, 7 November 2017

Padmavati - Real Story - The Pride of Rajputana

पद्मावती

दोहराती हूॅ सूनो रक्त से लिखी हुई कुरबानी
जिसके कारण मिट्टी भी चंदन है राजस्थानी



दोस्तों आज हम बात करेंगे वीरों को जंम देने वाली भूमि चितौड़ की तथा वहाॅ की बेहद खूबसूरत रानी पदमावती की जो इतिहास में पदमिनी के नाम से भी प्रसीद्ध है। हाॅ दोस्तों ये वो ही रानी है जिसे पाने के लिए दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने मेवाड़ पर आक्रमण किया और जब उसे न पा सका तो उसने चितौड़ की बेकसूर 30 हजार जनता का कत्लेआम किया। चलों दोस्तों इतिहास के पन्नों को उलट कर देखते हैं कि वर्ष 1303 में क्या हुुआ था कि एक राजपूत रानी को अपनी इज्जत बचाने के लिए 30 हजार स्त्री पुरूषों की जान को दाव पे लगाना पड़ा था।

अपने समय की बेहद खूबसूरत रानी पद्मिनी का जन्म सिंहल द्वीप में हुआ था उनके पिता गंधर्व सेन थे तथा उनकी माता चंपावती थी। पद्मिनी का जन्म कन्या राशि में हुआ था इसलिए उसका नाम नक्षत्र के अनुसार पद्मावती रखा गया। पद्मिनी रूपवती होने के साथ-साथ विदुषी भी थी। इसी समय वीर प्रसूता भूमि चितौड़ पर गुहिल वंश के राजा रत्नसिंह शासन कर रहे थे। रत्नसिंह एक बहादूर राजा थे जिनकी पटरानी नागमति अत्यंत सुंदर स्त्री थी। एक दिन नागमति डपततवत में देखते हुए खुद की प्रशंसा कर रही थी कि उसके जितना सुंदर पूरे विश्व में कोई भी नहीं है। इतने में मानव की बोली में बोलने वाला हीरामन तोता बोला की जिस सरोवर के तट पर हंस नहीं आता वहाॅ बगुली को ही लोग हंस समझ लेते है। ईष्यावश नागमति ने पूछा कि अगर मैं विश्व की सबसे सुंदर महिला नहीं हॅू तो तुम बताओं की कौन सबसे सुंदर है। इस पर हीरामन तोते ने सिंहल द्वीप की चंद्रमा के समान मुख वाली विश्व की सबसे सुंदर स्त्री पद्मिनी की सुंदरता का बखान किया। इस पूरे वार्तालाप को जब रावल रत्नसिंह ने सुना तो उनके मन में पद्मिनी को अपनी पत्नी बनाने की इच्छा जागी और साधु का वेश बनाकर सिंहल द्वीप की और चल पड़े। 

कई कठिनाईयों एवं मुसीबतों को सहन करते हुए साधु का वेश बना रावल रत्नसिंह सिंहल द्वीप पहॅुचे किंतु गंधर्वसेन ने रत्नसिंह के मुख के तेज से पहचान लिया था कि ये व्यक्ति कोई सामान्य पुरूष ने होकर के कोई राजकुमार है। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि ये तो चितौड़ के शासक रत्नसिंह है तो गंधर्वसेन ने पद्मिनी का विवाह गंधर्वसेन से करा दिया। इस प्रकार रत्नसिंह पद्मिनी को पाने में सफल रहता है।   
रानी की मेहंदी भी नहीं सुख पाई थी कि मेवाड़ राजदरबार में एक गंभीर घटना घटीत हुई। रत्नसिंह के दरबार में एक राघव चेतन नामक जादूगर रहता था जब रावल रत्नसिंह को पता चला कि वो काला जादू करता है तो उसे दरबार से निकाल दिया। राघव चेतन अपने अपमान का बदला लेने के लिए दिल्ली सुल्तान की शरण में चला गया। अलाउद्दीन खिलजी को उसने पद्मिनी की सुंदरता का खुल कर बखान किया तो चारित्रिक रूप से कमजोर सुल्तान जो पहले भी गुजरात की रानी कमला देवी एवं देवगिरी के शासक की पुत्री छिताई पर अपनी बुरी नजर डाल चुका था अब वह पद्मिनी को पाने के लिए चितौड पर हमले के लिए निकल पड़ा।

1303 ई. में दिल्ली का सुल्तान मेवाड़़ के अभेद्य दुर्ग चितौड़ पर घेरा डालता है। आठ महिने घेराबंदी के बाद भी जब सुल्तान चितौड़ को जीत नहीं पाता है तो वह जीतने के लिए छल का सहारा लेता है। अलाउद्दीन खिलजी, रत्नसिंह के समक्ष दोस्ती का हाथ बढ़ता है और केवल चितौड़ दुर्ग देखने की इच्छा जाहिर करता है। जब सुल्तान दुर्ग में आता है तो मेवाड़ी परंपरा के अनुसार उसका खुब अच्छे से स्वागत सत्कार होता है। रत्नसिंह अलाउद्दीन को भोज पर आमंत्रित करते है। भोजन के दौरान सुल्तान को खाना परोसने का कार्य पद्मिनी के साथ सिंहल द्वीप से आई बेहद सुंदर सेविकाए कर रही होती है। अलाउद्दीन उन सेविकाओं की सुंदरता देख चकित रह जाता है, खाना खाने के दौरान ही अलाउद्दीन की नजर ऊपर खिड़की में खड़ी पद्मिनी पर पड़ती है अलाउद्दीन पद्मिनी को देख लेता है और उसकी सुंदरता से इतना आकर्षित हो जाता है कि वह पद्मिनी को पाने के लिए रावल रत्नसिंह को छल से बंदी बना लेता है जब वह सुल्तान को विदा करने जा रहे होते है।

रानी पद्मिनी जो सुंदर होने के साथ ही बड़ी चतुर भी थी, वह अपने बादल व गोरा के सहयोग से छल का जवाब छल से देने की योजना बनाती है। रानी घोषणा करवाती है की वह अपनी 1600 दासियों के साथ सुल्तान के पास आ रही है अतः उसके पति रत्नसिंह को छोड़ दिया जाए। इन 1600 डोलियों में बहादूर राजपूत सिपाही थे। जब सुल्तान रानी आने के खुशी में जश्न मना रहा होता है उधर राजपूत सिपाही हमला कर रत्नसिंह को छुड़ा ले जाते है ंिकंतु इस संघर्ष में गोरा मारा जाता है। सुल्तान को जब ये पता चलता है तो राजपूत सिपाहियों एवं सुल्तान की सेना मे भयंकर युद्ध होता है। इसी के साथ 1303 ई. में मेवाड़ का पहला साका हुआ रावल रत्नसिंह एवं बादल के नेतृत्व में जहाँ वीर राजपूत सिपाहियांे ने केसरिया किया वहीं पद्मिनी के नेतृत्व में राजपूत स्त्रियों ने अपने सतीत्व की रक्षा हेतु स्वंय को अग्नि में समर्पित कर जौहर किया। गोरा, बादल के बलिदान पर कवि नरेन्द्र मिश्र ने ठिक ही कहा है

खिलजी मचला था पानी में आग लगा देने को 
पर पानी प्यास बैठा था ज्वाला पी लेने को
धन्य धरा मेवाड़ धन्य गोरा बादल अभिमानी
जिनके बल से रहा पद्मिनी का सतीत्व अभिमानी
  दोहराती हूॅ सूनों रक्त से लिखी हुई कुरबानी
जिसके कारण मिट्टी भी चंदन है राजस्थानी



शूरवीर राजपूत सिपाहियों के अदम्य शौर्य एवं साहसपूर्ण प्रदर्शन के बावजूद भी वे चितौड़ दूर्ग पर अलाउद्दीन खिलजी के अधिकार में जाने से रोक नहीं पाए। रावल रत्नसिंह की मृत्यु के साथ ही मेवाड़ में बापा रावल के साथ प्रारंभ हुई रावल शाखा का अंत हुआ। अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ का नाम बदलकर अब अपने बेटे ख्रिज खाॅ के नाम पर खिज्राबाद कर दिया। अलाउद्दीन फिर भी चितौड़ पर अपने अधिकार को लंबे समय तक बनाए न रख सका और बापा रावल के वंशज सीसोदा शाखा के राणा हमीर ने पुनः चितौड़ पर अपना अधिकार स्थापित किया।  

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हैफा का युद्ध मोर्चा और जोधपुर सैनिकों का अदम्य साहस

दिल्ली स्थित तीन मूर्ति भवन जो कभी पं. जवाहर लाल नेहरू का सरकारी आवास हुआ करता था जहां उन्होंने 16 वर्ष गुजारे थे।   यही तीन मूर्ति भव...